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कोई मुझ-सा मुस्तहक़े-रहमो-ग़मख़्वारी नहीं / नज़र लखनवी

कोई मुझ सा मुस्तहके़-रहमो-ग़मख़्वारी नहीं।
सौ मरज़ है और बज़ाहिर कोई बीमारी नहीं॥

इश्क़ की नाकामियों ने इस तरह खींचा है तूल।
मेरे ग़मख़्वारों को अब चाराये-ग़मख़्वारी नहीं॥