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कोई यह आँसू आज माँग ले जाता! / महादेवी वर्मा
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तापों से खारे जो विषाद से श्यामल,
अपनी चितवन में छान इन्हें कर मधु-जल,
फिर इनसे रचकर एक घटा करुणा की
कोई यह जलता व्योम आज छा जाता!
वर क्षार-शेष का माँग रही जो ज्वाला,
जिसको छूकर हर स्वप्न बन चला छाला,
निज स्नेह-सिक्त जीवन-बाती से कोई,
दीपक कर असको उर-उर में पहुँचाता!
तम-कारा-बन्दी सान्ध्य रँगों-सी चितवन;
पाषाण चुराए हो लहरों से स्पन्दन,
ये निर्मम बन्धन खोल तडित से कर से,
चिर रँग रूपों से फिर यह शून्य बसाता!
सिकता से तुलती साध क्षार से उर-धन,
पारस-साँसें बेमोल ले चला हर क्षण,
प्राणों के विनिमय से इनको ले कोई,
दिव का किरीट, भू का श्रृंगार बनाता!