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कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं / बशीर बद्र

कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैं

दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं
इस के दरवाज़े पे सौ अहले करम आते हैं

मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिये
कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं

मैं ने दो चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिन
शहर के तौर तरीक़े मुझे कम आते हैं

ख़ूबसूरत सा कोई हादसा आँखों में लिये
घर की दहलीज़ पे डरते हुए हम आते हैं


रचनाकाल - 1978