कोई साथ दे या कोई छोड़ जाए,जो ख़ुद चल रहे हैं गिरे कब हैं लेकिन / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
कोई साथ दे या कोई छोड़ जाए, जो ख़ुद चल रहे हैं गिरे कब हैं लेकिन
कभी काफ़िलों में, कभी तनहा-तनहा, सफ़र ज़िंदगी के रुके कब है लेकिन
ज़माने की तारीख में कैसी-कैसी चली आंधियाँ और तूफ़ान आए
हुईं बारिशें भी सितम की मुसलसल, च्ररागे-हकीकत बुझे कब हैं लेकिन
हिरणकश्यपों ने रचे जाल कितने, रहीं ज़ुल्म की संगिनी होलिकाएँ
सजाई चिताएँ फ़रेबों ने अक्सर, प्रहलाद हैं वो जले कब है लेकिन
भुला दे सियासत की चालें किसी को, करें कोशिशे खुदगरज़ चाहे कितनी
वो मर्जी के इतिहास रच-रच के थोपे, भगतसिंह दिल से गए कब है लेकिन
कभी धर्म-मज़हब में वो भॆद करते, कभी अहमियत जाति-भाषा की रटते
लडाते हैं लोगों को इस-उस बिना पर, ये अहले-सियासत लडे कब हैं लेकिन
हमेशा ही दादा से नानी से हम ने सुनी परियों, शाहों, नवाबों की बातें
गरीबों पे क्या-क्या मज़ालिम हुए हैं, किसी ने वो किस्से कहे कब हैं लेकिन
ज़माने के सुर-ताल में चलते-चलते, निजि सुर न जाने कहाँ खो गए हैं
बदल ही गई है रागिनि ज़िंदगी की, खुद अपने शनासा रहे कब हैं लेकिन
कि अम्नो-अमां के लिए अय "यक़ीन" इस जहाँ में बहें हैं बहुत खूँ के दरिया
किसी जंग के बाद खुशियों के परचम रिआया के दिल में हँसे कब हैं लेकिन