भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई हवा / सविता सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में
उन नदियों, पहाड़ों, जगंलों में
जहाँ दूसरे जीवों का जीना होता है
मुझे भी दिखाये कठिनतम
स्थितियों में भी कैसे
बचा रहता है जीवन

दस बजिया फूल की एक डाल कैसे
टूटकर जीवन नहीं खोती
ज़रा-सी मिट्टी से लगकर
कहीं पत्थरों में बनी संकरी फाँक में
वह जीने लगती है नया एक जीवन

कोई एक डाल किसी मज़बूत पेड़ की
तेज़ तूफ़ान में गिरकर भी बची रहती है
हल्की-सी अपने तने से यदि
वह है अब भी लगी

कोई हवा मुझे भी दिखाये कैसे
लाखों करोड़ों जीवाणु
कीड़े-मकोड़े बड़े-छोटे
जीते हैं प्रछन्न प्रबल अपने जीवन
कैसे उन्हें कोई पीड़ा नष्ट नहीं कर सकती
गुमराह नहीं कर सकता कोई भी सुख उन्हें
छीन नहीं सकता कोई उनसे उनका सच
रोक नहीं सकता उन्हें जाने से इस जीवन के आगे

समाप्त होती तितलियाँ
किस ओर से आने लगी हैं
इतनी सारी सुंदर रंग-बिंरगी
ढेर सारी तितलियाँ
झाड़ती पराग पंखों से
भरती वातावरण को ईश्वर के अपने रंग से
लहराती हल्की हवाओं संग
फ़ुर्ती से दिशा बदलती
किस ओर चली जा रही हैं
इतनी सारी तितलियाँ
बाहर की टह टह धूप का रंग बदलती
उतारती जेठ की गर्मी को दोपहर के कलेजे में

किस मोहजाल की तरफ़ बढ़ती जा रही हैं
किस आकाश के नीलेपन में होने शामिल
खोने समय की किस खाई में

पराग बरसाने वाली
प्रफुल्ल नाचती इतनी सारी तितलियाँ
इतनी ख़ुशी से कैसे उड़ती जा रही हैं समाप्त होने