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कोई हसरत न कोई गुमाँ रह गया / जगदीश नलिन

कोई हसरत न कोई गुमाँ रह गया
जीस्त का जाने क़ायल मैं क्यों रह गया

लम्हे रोने के हंसने के आते रहे
बेख़ुदी में रहा बेज़ुबाँ रह गया

हद से जाऊँ गुज़र ये ना सोचा कभी
ख़ुद की गफ़लत के मैं दरमयाँ रह गया

हंसने वालों से शिकवा न कोई मुझे
उनकी इशरत का मैं इक सामाँ रह गया

अन्धेरों में दहशत के साए रहे
मुख़ालिफ़ उजालों का मैं रह गया