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कोकिल गा न ऐसा राग! / महादेवी वर्मा
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कोकिल गा न ऐसा राग!
मधु की चिर प्रिया यह राग!
उठता मचल सिन्धु-अतीत,
लेकर सुप्त सुधि का ज्वार,
मेरे रोम में सुकुमार
उठते विश्व के दुख जाग!
झूमा एक ओर रसाल,
काँपा एक ओर बबूल,
फूटा बन अनल के फूल
किंशुक का नया अनुराग!
दिन हूँ अलस मधु से स्नात,
रातें शिथिल दुख के भार,
जीवन ने किया श्रृंगार
लेकर सलिल-कण औ’ आग!
यह स्वर-साधना ले वात,
बनती मधुरकटु प्रतिवार,
समझा फूल मधु का प्यार
जाना शूल करुण विहाग!
जिसमें रमी चातक-प्यास,
उस नभ में बसें क्यों गान
इसमें है मदिर वरदान
उसमें साधनामय त्याग!
जो तू देख ले दृग आर्द्र,
जग के नमित जर्जर प्राण,
गिन ले अधर सूखे म्लान,
तुझको भार हो मधु-राग!