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कोकीन का इंजेक्शन / तरुण

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है अपनी भी एक राम कहानी!
तब मैं इण्टर में पढ़ता था, पिलानी।
टॉन्सिल्स गले के गये थे बढ़,
उधार के पैसे भी सिर पर गये थे चढ़।
पीला-पीला आने लगा था कफ़।
मिजाज़ भी मेरा रहने लगा था रफ़।
हितैषियों ने राय दी, और बात भी कही ज़रा सख्त-
-कटवा ले गिल्टियों को-
नहीं तो मर जाएगा, कमबख्त!’

मैं अस्पताल में जा गिरा, इन्दौर,
अकेला था, मर गये थे माँ-बाप-
बस, कुछ ऐसा ही था जिन्दगी का दौर।
जर्मन था डॉक्टर
कोकीन का इंजेक्शन लगा कर
लगा दिया उसने बस नश्तर।
चमड़ी हो गई सुन्न, निर्जीव,
नसें सब हो गयी थीं क्लीव;
मेरे गेले की गिल्टियाँ दीं काट,
पकड़ ली मैंने फ्री फंड की खाट।
फील नहीं हुआ कहीं भी कोई दर्द,
मैं भी तो था अठारह बरस का मर्द।
डर रहा था मैं ख़ामखाह
पर, मरा नहीं-वाह!
डॉक्टर ने बर्फ़-भरी रबड़ की ट्यूब
मफ़लर की तरह, गले के चारों ओर-
लपेट दी-क्या खूब!
मैं हो गया तीन-चार दिन में ठीक
इलाज बड़ा माकू़ल रहा, सटीक।
कोकीन का जब लग जावे एक इन्जेक्शन तमाम
तो फिर चमड़ी में किसी भी चुभन का क्या काम!

भुक्तभोगी हूँ, इसीलिए एक पुख़्ता बात कहता हूँ
हर पल महसूसता हूँ-

सारी सभ्यता, सारी संस्कृति और सारी धरती-
लग रही है मुझे तो अब ऊसर, बंजर और परती!
सुन्न व निर्जीव पड़ी-
कोकीन के इन्जेक्शन लगी;
मानो मेरे गले के भीतर की-सी चमड़ी!

अब मगरमच्छ, गैंडा या कछुआ-
अदमी के आगे क्या हुआ!

दुर्ग-तोरण के
लौह-कीलों से भी जो रहे सरासर अनबिद्ध-
शराब-पिये युद्धोन्मत्त हाथियों के अंगों व चमड़े से अधिक
आदमी के तन, मन और प्राण हो गये हैं अब
दृढ़ और सिद्ध!

निस्पन्द हो गया है अब संस्कृति का सारा स्नायु-जाल!
निर्जीव पड़ गई है अब हम सबकी आत्मा की खाल!

1981