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कोजागरी / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन
Kavita Kosh से
सिर के भीतर कल रात
जितने कंगन बज उठे थे
मैंने सपने में
उनके सुरों को खोल-खोल कर देखा था
सुरीली चाँदी-जैसे गहने, कमसिन चाँद ...
गुजरीपंचम में उसके कोमल गांधार लग गया था
मैं उस जुन्हाई को, उस जादू को
अपने दिमाग़ में बचाए रखती हूँ
सिरहाने गंुजा की माला ने
गठानें खोलकर झटक दिया था आसमान,
भोर रात के सपने!
तब भी तुम्हारे नक़्क़ाशी के काम में
थोड़ी-सी... गीली... मिट्टी... लगी हुई थी।