कोठा-2 / नज़ीर अकबराबादी
कभी तो जाओ हमारे भी जान कोठे पर।
लिया है हमने अकेला मकान कोठे पर॥
खड़े होते हो तुम आन आन कोठे पर।
करोगे हुस्न की क्या तुम दुकान कोठे पर॥
तुम्हें जो शाम को देखा था बाम पर मैंने।
तमाम रात रहा मेरा ध्यान कोठे पर॥
यकीं है बल्कि मेरी जान जबकि निकलेगी।
तो आ रहेगी तुम्हारे ही जान कोठे पर॥
मुझे यह डर है किसी की नज़र न लग जावे।
फिरो न तुम खुले बालों से जान कोठे पर॥
बशर तो क्या है फ़रिश्ते का जी निकल जावे।
तुम्हारे हुस्न की देख आन बान कोठे पर॥
झमक दिखाके हमें और भी फंसाना है।
जभी तो चढ़ते हो तुम रोज़ जान कोठे पर॥
तुम्हें तो क्या है व लेकिन मेरी ख़राबी हो।
किसी का आन पड़े अब जो ध्यान कोठे पर॥
गो चूने कारी में होती है सुखऱ्ी तो ऐसी।
किसी के खू़न का यह है निशान कोठे पर॥
यह आर्जू है किसी दिन तो अपने दिल का दर्द।
करें हम आन के तुमसे बयान कोठे पर॥
लड़ाओ गै़र से आंखें कहो हो हम से आह।
कि था हमें तो तुम्हारा ही ध्यान कोठे पर॥
खु़दा के वास्ते इतना तो झूठ मत बोलो।
कहीं न टूट पड़े आसमान कोठे पर॥
कमंद जुल्फ़ की लटका के उस सनम ने ”नज़ीर“।
चढ़ा लिया मुझे अपने निदान कोठे पर॥