भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोठियों के बढ़ गए आकार हैं / बल्ली सिंह चीमा
Kavita Kosh से
कोठियों के बढ़ गए आकार हैं ।
झुग्गियाँ तो आज भी लाचार हैं ।
तू मेरे महबूब की हमशक़्ल है,
ज़िन्दगी तुझ से गिले बेकार हैं ।
तेरी यादों-सी नहीं है ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी के ग़म बड़े दुश्वार हैं ।
इस नगर में भी है भूखी ज़िन्दगी,
तुम तो कहते थे भरे बाज़ार हैं ।
मेरे चेहरे पर जमा कुहरा न देख,
मेरे सीने में दबे अंगार हैं ।
आपके वादों का भी विश्वास क्या,
आप भी दिल्ली के नातेदार हैं ।
दुश्मनों की आँधियों से पूछ लो,
झोंपड़े अपने बड़े दमदार हैं ।