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कोनी घणो आंतरो / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
थारै हुवणै
अर नीं हुवणै बिचाळै
कोनी घणो आंतरो।
केई-केई बार
थारै थकां ई
फगत म्हैं होवूं
फगत म्हैं
आंधो-चूंधो
गरजतो-बरसतो।
कदी कदास
थारै परबारै
थारी मौजूदगी
मैसूस करूं म्हैं
म्हारै ओळै-दोळै
सुणीजै सांस
करूं बातां
ओळखूं थनै।
म्हैं कैयो नीं
कोनी घणो आंतरो
थारै हुवणै
अर नीं हुवणै बिचाळै।