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कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया / नीरज गोस्वामी
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कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहाँ गया
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया
फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया