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कोरोना सीरीज की कविताएँ / सुधीर सक्सेना

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1.

तुलना मत करो
प्रेम की किसी जीवाणु या विषाणु से
कि तुलना बेमानी होगी
सर्वथा निरर्थक

किसी भी तालिका में नहीं
ऐसा जीवाणु या विषाणु
जो प्रेम तो क्या
मिलता-जुलता हो क्वचित प्रेम से

कतई नहीं कोई कहीं ऐसा
जो प्रेम की तरह सदाशयी हो
प्रेम की तरह हो निर्मल
प्रेम की तरह आबदार
और शोख़

ख़ुदा ख़ैर करे
कि प्रेम के लक्षण नितान्त विलोम होते हैं
विषाणु से,
विषाणु का क्या वास्ता प्रेम से

काश!
ऐसा होता
कि प्रेम फैल जाता पृथ्वी पर
इस छोर से उस छोर तक अबाध,
उस तमीज़ की मानिन्द,
जो आदमी को बनाए इंसां

आओ!
हम करें दुनिया में
प्रेम के ऐसे ही संक्रमित युग की प्रतीक्षा।

2.

दुनिया में बाज वक़्त
ऐसा भी मंज़र आता है;
इतना हैरतअंगेज़
कि पीछे छूट जाती हैं हैरतें

वक़्त ऐसा
कि ज़िन्दगी का गला रूंध जाता है
मौत के श्लेषम से
और हाँफते हुए दम टूटता है ज़िन्दगी का
दुनिया में ओर-छोर, ठौर-ठौर

बाज वक़्त
हैरानियाँ होती हैं हैरान
बाज वक़्त
नज़दीकियों से सिमटता है प्रेम
और बाज वक़्त
दूरियों से बेतरह पसरता है प्रेम।


3.

हुआ जैसे बीस सौ बीस में
अगर ऐसे ही
हो जाए कभी प्रेम का संक्रमण
एशिया, योरोप, अमेरिका ही नहीं
लातिनी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और
अफ्रीका तक में सर्वत्र

फैल जाए प्रेम का विषाणु
तो कैसी हो जाएगी दुनिया
अद्भुत से अद्भुततम हो जाएगी दुनिया
जगमग-जगमग, झिलमिल- झिलमिल
ऐसा अपूर्व चरण
कि कोरनटाइन की ज़रूरत ही नहीं होगी
कहीं किसी ठौर

अगर हुआ प्रेम का संक्रमण
विलक्षण होगा पर्यावास
पहली बार दुनिया होगी प्रेम से संक्रमित,
पहली बार होगी दुनिया उजली, चमकीली
और स्वस्थ

मात्र ग्रह नहीं,
धरती होगी तब सचमुच
ब्रह्माण्ड के तमाम ग्रहों के लिए
जीती जागती ईर्ष्या।


4.

तुम्हें चाईना कहूं कि किताय
कि चीन
तुम आबादी के मान से अव्वल हो
तुम अव्वल हो कई मायनों में
तुम्हारे लिए यूँ ही नहीं दी जाती ड्रैगन की मिसाल

भयाक्रान्त तिब्बत में सुनी जा सकती हैं
तुम्हारी क्रूर गाथाएँ,
लौह कपाटों में क़ैद नहीं रह सके
चौकड़ी के क़िस्से,
संस्कृति भी तुम्हारे लिए क्रांति रही
बारूद के धमाकों और गंध से लैस,
अनुमानों के गज़ से नापे नहीं जा सके
तुम्हारे षड्यंत्र,
तुमने शब्दकोश से क्रूरतापूर्वक ख़ारिज किया
लिहाज़
लिहाज़ा तुम्हारे होने से उभर आई
दुनिया की पेशानी पर अनमिट सल
बीस सौ बीस में यक-ब-यक दुनिया के चैन को
लीलती दिखी तुम्हारी क़ातिल बेचैनी
सच मानो,
आज मानचित्र या दुनिया पर
तुम्हारे आकार से भी कहीं बड़ा है
तुम्हारे नाम पर उभरा स्याह बदनुमा धब्बा।


5.

कहते हैं और कहा गया
कि वूहान में जन्मा पहला कोरोना
मगर पहला नहीं है वूहान में जन्मा कोरोना

एक अंतहीन कतार है कोरोना,
जिसके साथ जीती आई है मानवता
प्रागैतिहासिक काल से धरती पर
पनप रहा है कोरोना :
कोरोना, जिससे गला नहीं रुंधता,
कोरोना, जिससे चोक हो जाता है दिमाग़,
कोरोना, जिससे अवरुद्ध होता है
मुक्त विचारों का अविरल प्रवाह

कोई नहीं जानता
इसके जनम का शक-संवत्
याकि कितनी सदी ईस्वी पूर्व हुआ उसका उद्भव
दिमागों में फैल गया है यह कोरोना
समूहों में, जातियों में, कबीलों में,
कौमों और नस्लों में

घृणा है कोरोना
हिंसा है कोरोना
अस्पृश्यता और वर्जनाएँ हैं कोरोना
कोविड-19 से अधिक संहारक, व्यापक
और अधिक कालजीवी है यह कोरोना
जब तक जीवित रहेगा यह कोरोना
सृष्टि पर मण्डराता रहेगा अहर्निश अनिष्ट।


6.

डर है कि बेहिसाब है
मुमकिन नहीं उसके घनत्व और
उसके आयतन की बात
दुनिया में इस डरावने समय में
बस, डर है कि निडर है,
बेफ़िक्र कि उसके डर की कोई मियाद नहीं

डर से डरे लोगों के लिए
अजनबी और अचीन्हा है यह ताज़ा डर
पृथ्वी न हुई
डर से डरे हुए लोगों का डेरा हुई,
माजरा यह
कि दोनों गोलार्ध डरे हुए,
डरे महाद्वीप,
डरे प्रायद्वीप

डर के प्रदक्षिणा-पथ में प्रविष्ट हुई पृथ्वी
डर की धुरी पर घूमती हुई
यह डर के नए युग में प्रवेश है पृथ्वी का
और तुर्रा यह है
कि कोई भी मुतमईन नहीं
कि कितना फ़ासला है
डर और डर के आगे की जीत के दरम्याँ।


7.

संशय नहीं,
संशय नहीं किंचित

कि प्रेमी का सुख प्रेम में है,
ज्ञानी का ज्ञान में,
भक्त का सुख भक्ति में
और मूढ़ का मूढ़ता में

साधो!
यह मूढ़ युग है,
मूढ़ता से बचो!
कि सबसे बड़ी मूढ़ता है
मूढ़ को मूढ़ कहना

अलबत्ता,
समय है अभी
शब्दकोश में देशद्रोह के पर्याय के तौर पर
मूढ़ता के प्रवेश में।


8.

नी हाओ,
चाइना!
हम तुमसे नहीं कह सकते
श्ये... श्ये!

अलबत्ता,
ऋणी हैं हम तुम्हारे
कि दिया तुमने दुनिया को
बारूद, कुतुबनुमा और काग़ज़
जाने गए तुम मिंग -वंश,
हान -कुल और मन्दारिन के कारण
तुम्हारे चीनांशुकों से पट गए
इतिहास के गलियारे में सजे-बिजे बाज़ार
जाने गए तुम ग्रेट वॉल
और लम्बे कूच के कारण
जाने गए तुम ओपियम-वार,
पट्टे पर हांगकांग और
थ्येनआनमन सँहार के कारण
कभी ह्वांगहो, कभी शंघाई,
तो कभी उईगीरों के कारण जाने गए तुम
जाने जाओगे सदियों तक
वूहान और कोरोना के वास्ते।


9.

वे
अचानक बत्तियाँ गुल कर देंगे
जनपथ से लेकर राजपथ तक की
बत्तियाँ ही नहीं
बल्कि कहेंगे आपसे
मितरो, गुल कर दीजिए अपने अपने
घरों की बत्तियाँ

बत्तियाँ गुल उनका शगल है,
उन्हें भाता है अन्धकार,
अन्धकार से प्रारम्भ होती है उनकी यात्रा,
अन्धकार ही उनका प्रस्थान-बिन्दु है,
अन्धकार ही जम्पिंग बोर्ड,
अन्धकार ही किनारा,
अन्धकार ही गंतव्य,

उनके एजेण्डॆ के पहले सफ़े पर है अन्धकार
और आख़िरी सफ़े पर भी अन्धकार
सम्पूर्ण अन्धकार के लिए तैयार है उनका रोडमैप,
अन्धकार के लिए अभ्यस्त हैं
उनकी आंखें और उनके पाँव
अन्धेरे का हुनर ऐसा
कि वे अन्धेरे से पाटते हैं अन्धेरे का गैप

मानेंगे नहीं वे
सारी बत्तियाँ गुल किए बग़ैर
वे एकबारगी सारी बत्तियाँ गुल कर देंगे
और आपके हाथों में थमाकर दीया
जारी करेंगे
ठोकरों से भरे रास्तों पर
कूच का शाही फ़रमान।


10.

अन्धेरे की बात करो
तो सिरा नहीं सूझता
अन्धेरे का, अन्धेरे में
वे अन्धेरे के उद्धत नायक हैं
अन्धेरे के वेगवान रथ पर सवार
फहराती है अन्धेरे में अन्धेरे की धर्मध्वजा
अन्धेरे में भागते हैं अन्धेरे के चपल अश्व
स्फूर्तिवान

वे उपजाते हैं अन्धेरे के बीज,
वे भण्डारण करते हैं अन्धेरे के बीजों का,
अत्यन्त व्यवस्थित है बीजों के वितरण की
उनकी प्रणाली

अन्धेरे के रक्तबीज उनकी ताक़त हैं
और इसी में निहित है
उनकी कामयाबी और उनके साम्राज्य का भेद
वे अन्धेरे के आयुधों से लैस हैं
अन्धेरे की ओर अग्रसर

वे हैं और अन्धेरे है
बात दीगर है
कि वे अन्धेरे को अन्धेरा नहीं कहते
और उसे पेश करते हैं
आकर्षक पैकेज के साथ
उजाले की मानिन्द।


11.

वे उजाले को
रथ का चक्का भी नहीं उठाने देंगे
और अन्धेरे के पुतले घेर लेंगे
उजाले के योद्धा को

अनति-दूर है यह प्रसंग
फिलवक़्त वे चक्रव्यूह की
रचना में तल्लीन हैं...


12.

तुम कहते हो
'क' से काश...
मैं कहता हूं...कोशिश।

तुम कहते हो
'क' से कव्वा...
मैं कहता हूं...कोयल।

तुम कहते हो
'क' से क़ैद...
मैं कहता हूं... क़लम।

तुम कहते हो
'क' से कोरोना...
मैं कहता हूं...कविता।

मितरो!
कितनी भिन्न हैं
हमारी और तुम्हारी वर्णमालाएँ।



13.

सुनो, ज़िल्दसाज!

सुनो,
ज़िल्दसाज!
मेरे शब्दकोश की ज़िल्द मत बांधो
मत बांधो
शब्दकोश की ज़िल्द
आने दो शब्दों को बेरोकटोक
देखो कि कैसे सजातीय हुए जाते हैं
विजातीय शब्द
ज़्यादा पुरानी नहीं,
बीती सदी की ही तो बात है
साइबेरिया में निष्कासन के बहाने हमने जाना पर्ज
उसी कालखण्ड में हमारी ज़ुबान पर फिर-फिर आया
होलोकास्ट, नाजी और फ़ासिज़्म
विश्वयुद्ध के अवसान के साथ आया हिबाकुशा
रेडियोधर्मिता से ग्रस्त अपने व्रणों के साथ
आतंक में कल्ले फूटे तो चले आए
खाड़कू, घल्लूघारा और तनखैया
कहर बरपा तो कभी टीना, कभी त्सुनामी
उत्तर आधुनिक युग में हिंस्र विकार की
शक़्ल में आया लिंचिंग
और उत्तर सत्य में देशकाल की सीमाओं को
धता बताता कोरनटाइन
ज़िल्द मत बांधो,
जिल्दसाज!
बाद के पन्नों को छोड़ दो कोरा
ताकि कोरे कागज़ों पर आकर बैठ सकें
शब्दों के नए-नए परिन्दे।


14.

डरो! कोरोना, डरो!!

डरो! कोरोना, डरो!!
ख़ौफ़ खाओ इनसान से
कि इनसान को मेटने की कुव्वत नहीं,
इनसान के अलावा किसी अन्य जीव में
कितने ही जीव आए और चले गए

 माना कि सरहदें अलंघ्य नहीं तुम्हारे वास्ते,
तुम पार कर लेते हो बात की बात में
 नदी, पहाड़, मैदान, सागर और मरुथल
तुम्हें कोरोना कहें कि काल का कराल पाश

मगर, इतराओ नहीं
कि ब्रह्माण्ड में है हर जीव के शब्दकोश में भय,
 इसलिए भय खाओ
भय खाओ धरती पुत्रों से

पहले भी आए जीवाणु-विषाणु
मृत्यु की पताकाँ फहराई उन्होंने द्वीपों-महाद्वीपों में
मगर धरती कभी नहीं हुई उनका विजित साम्राज्य
उन्हें मात दी कभी हाइनरिख कोच, कभी फ़्लोर,
 कभी एडवर्ड जेनर, कभी अर्न्स्ट चेन,
कभी अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, तो कभी लुई पाश्चूर ने

 डरो,
 कोरोना डरो!
अभी निवीर्य नहीं हुई हैं अंतोन लुवेनहॉक की
संततियाँ
मनुष्य की प्रयोगशालाओं से डरो, कोरोना
डरो कि मनुष्य जाति का कोई न कोई वैज्ञानिक
जल्द-अज-जल्द खोज लेगा तुम्हारा तोड़
और तुम दर्ज हो जाओगे इतिहास की ज़र्द पोथी में।

15.

छोटे कोरोना का विराट ख़ौफ़

 कुछ भी हो सकता था उसका नाम
अलबत्ता जाना गया वह कोरोना के नाम से
 नाम से तो कुछ पता ही नहीं चलता
 कि कितने ख़ौफ़नाक हो सकते हैं तीन अक्षर,
 नाम से कतई पता नहीं चलता
उसका अतिस्वन से तीव्र वेग,
 नाम से किंचित आभास नहीं होता
कि किस कदर क़ातिलाना है उसका मिजाज़

क़द इतना छोटा
मगर इतना करामाती
कि बौना हुआ सागरमाथा,
कुछ ही लम्हों में वह फलांँग गया ग्रेट वॉल
 वूहान में एक कतरा देखते-देखते पसर गया मौत के स्याह धब्बे-सा समूचे ग्लोब पर

 किसे पता था
कि इक्कीसवीं सदी की बीसवीं पायदान पर
दोनों गोलार्धों की पसलियों में
 इस तरह धाड़-धाड़ बजेगा
 छोटे से कोरोना का विराट ख़ौफ़।