भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोलाहल के बीच अकेला था / दिनकर कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोलाहल के बीच अकेला था
सहलाते हुए ज़ख़्म
मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था
दयनीय हो गया था
आईने में मेरा चेहरा
 
किसने सुनी किसने समझी
हृदय की बात
जो दुर्लभ निधि की तरह
गोपनीय थी

किसने पढ़ी आँखों की भाषा
किसने आँसूओं का इतिहास पूछा
किसने कन्धे पर हाथ रखा
किसने कभी सोचा मेरे बारे में
कोलाहल के बीच अकेला था
और बड़ी मुश्किल से
स्वयं को बचाकर लाया था
भीड़ से, भीड़ के उन्माद से

कोलाहल के साथ ही
शुरू हुआ था जीवन
अन्न के लिए छीना-झपटी
वस्त्र के लिए हाथापाई
सिर पर छत के लिए
हाहाकार-हाहाकार !