भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोवा काला-काला रे / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
कौवा काला-काला रे
इसे न मैंने पाला रे
रोज सबेरे बैठ मुँडेरे
करता है यह काँव
बोल-बोलकर जगा रहा है
जैसे सारा गाँव
यह है बड़ा निराला
कौवा काला-काला रे
दादी कहती है, यह कौवा
लाता है संदेश
पाहुन आएँगे या दादा
जो हैं गए विदेश
बनी गले में माला रे
कौवा काला-काला रे
ठीक समय पर यह आता है
जब होता है भोर
मैं मुन्नी के साथ जागता
सुनकर इसका शोर
काले पंखों वाला रे
कौवा काला-काला रे
उड़ जा कौवा, उड़ जा,
बोलीं दादी ऐसे बात
कोई आए तो मैं दूँगी
तुझे पेटभर भात
और दूध भर प्याला रे
कौवा काला-काला रे।