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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 2 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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माँ कोशी
तुम भगवती हो
साक्षात् पार्वती माँ
या फिर
पार्वती माँ की ही बेटी
क्योंकि
तुम्हारे जन्म की कथा तो
वैसी ही कुछ है
भगवती पार्वती के
कोश से
तुम्हारा जन्म है
तभी तो
तुम
कोशिका माँ हो
लाल तुम्हारा पानी
अकथ तुम्हारी कहानी

हरि अनन्त
हरि-कथा अनन्त
जितने ही देव-ऋषि
उतनी ही तुम्हारी कथा
वेद-पुराण
सब तुम्हारी गाथा गाते
तुम्हारे कछारों पर कभी
ऋषि विश्वामित्र की
साधना पूरी हुई थी
तुम्हारे किनारे पर
अपने तप से
नया लोक गढ़ा था
हे माता
जब भगवान विष्णु के पार्षद
शापवश
अपने दूसरे जन्म में
पृथ्वी को ही लेकर
छिप गया था
कहीं पाताल लोक मे
तब
मंदार के क्षीर-सागर से
चल कर
आये थे भगवान विष्णु
हे कोशिका माँ
तुम्हारे कछार पर
धारण किया था
वराह का रूप
देखते-ही-देखते
उतर गये थे प्रभु
तुम्हारी अथाह जलराशि में
और फिर
अपने अग्रदन्त के भाग पर
पृथ्वी लिए
निकल आये थे
तभी से तुम्हारा यह आँचल
कहलाया-
वराह भूमि।

लेकिन हे कोशी माँ
अब तो नहीं है वह पार्षद
न रही पृथ्वी अलोपित
लेकिन तुम्हारी जलराशि का आँचल तो
अभी भी वैसा ही लहरता है
जो कभी
समेटती भी हो आँचल
तब भी
कहाँ थमती है लहराती लहरें
डूबता है
हँसता है
हमरा अंगुत्तराप
हमारा अंग।

इसी तरह
न जाने
कब से ही
डूब-भस रहा है
अंगुत्तराप के बीच
छोटा-सा मेरा गाँव
जैसे कि सागर में सीपी
सीपी में मोती
वैसे ही, हे कोशी माता
तुम्हारी वेगवती लहरों के बीच
मेरा यह गाँव
खरैता
खर-पतवार से
पूरित मेरा गाँव
और उसी के बीच
ईंटा-माटी से बने
सौ-सवा सौ घर
हे कोशी माँ
जब तुम झूमती हो
अपनी सातों बहनों के साथ
और डूबने लगता है।
सारा का सारा अंगुत्तराप
कहीं सुपौल
कहीं सहरसा
कहीं पूर्णिया
कहीं कटिहार
कहीं खगड़िया
तो कहीं अररिया
उस समय मेरा यह गाँव खरैता
मेरा यह छोटा-सा गाँव
छिप जाता है
तुम्हारे आँचल में, हे माता
दूर-दूर तक के खर-पतवार
और घास-पुआल के घर
लगते हैं
जैसे
डोंगी-नावें
बीच धारों पर
आ-कर खड़ी हो गई हों
न हिलती हैं
न डोलती हैं
न होता है
किसी टोले में
कोई शोरगुल
न बच्चों का
न औरतों का
न लड़के-लड़कियों का
न औसारे पर
बूढ़े-बुजुर्गों के
गप उड़ते हैं
न खेतों में जुतते हैं
हल या किसी के ट्रैक्टर
जब गूँजती है
हे कोशी माँ
तुम्हारी आवाज
खलखल बहती धारों की
तब छोड़ देते हैं
गाँव-गाँव को
गाँवों के ही लोग
तुम्हारे कछारों पर खड़े होकर
गाते हैं गीत
गाँव की औरतें