कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 4 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
की तोहें
है नै जानै छोॅ कोशी माय
कि कत्तेॅ-कत्तेॅ कोशी-पुत्र
तोहरे कारण
छोड़ी केॅ चली दै छै
कमावै लेॅ विदेश
आरो फेनू घूमी केॅ
कभियो नै आवै छै
आपनोॅ माटी पर ऊ लाल
कानतें रहै छै
ओकरी जनानी
आँखी में एकटा आस लेनें
ताकतें रहै छै
वही दिश
जोॅन दिश गेलोॅ छै
ओकरोॅ मरद
नै जानौं
कि ओकरोॅ आस
पुरै छै कि नै पुरै छै
ओकरोॅ मरद
घुरै छै कि नै घुरै छै
कि तोरे ऊ बेटी सिनी
के कहेॅ पारेॅ कि आखिर में
कानतें-कानतें
माटिये में कहीं
माटी बनी केॅ रही जाय छै।
हे माय, तोंही सोचोॅ
आखिर कहाँ से ऐतियै
ओकरोॅ सुहाग
वहू तेॅ कहीं
परदेश में खटतें-खटतें
मरी-खपी जाय छै
आँखी में
पत्नी, बेटा-बेटी के सपना
बसैलेॅ होलेॅ
हे कोशी माय
ई सब हठाते होय जाय छै
जखनी तोहें
झूमर खेलतें रहै छोॅ
आपनोॅ सातो बहिन साथें
के रोकेॅ सकै तोरा
के बरजौं तोरा
रोकल्हौ सें की
बरजल्हौ सें की
केकरा मानलेॅ छौ तोहें
जे आय केकरो मानी लेवौ
मेटी दै छौ तोहें सपना
आपने बेटा के
आपने हाथोॅ सें
दीप बुझाय दै छौ
आरो करी लै छौ
सौंसे अंगुत्तराप
आपनोॅ देहोॅ में विलीन
हेनोॅ की
खेले-खेले में उमतैवोॅ।
तखनी, कोय नै
आवै छै
है अंगुत्तराप केॅ
बचवै खातिर
चारो दिश सें
गुहार होतें रहै छै
पुकार होतें रहै छै
दिल्ली के सरङगोॅ में
बैठलोॅ देवता सिनी के
मीटिंग चलतें रहै छै
तब तक
जब तक कि
सब खतम नै होय जाय छै।
वहेॅ बाँध-योजना
वहेॅ कागजी घोड़ा
दौड़ै छै
दिल्ली के रेस कोर्स मैदान सें लै केॅ
पटना के गाँधी मैदान तक
एक-एक घोड़ा पर
हजारो-हजारो सवारी
घोड़ा हाफतें रहै छै
घोड़ा दौड़तें रहै छै
नै कांही ओर
नै कांही छोर
खाली
वहेॅ टापोॅ के आवाज
वहेॅ हिनहिनैवोॅ
जगह-जगह
घोड़ा के लीदे-लीद
हे कोशी माय
आय तोरोॅ ई माटी में
कोय लव-कुश नै
जे रोकी लेॅ
ई घोड़ा केॅ
बाँधी देॅ कोय जग्घा पर
एक बार
फैसला तेॅ होय जाय
मतरकि फैसला नै होय छै
कभियो ऐलोॅ रहै
भगवान विष्णु-वराह बनी
कोय भगवान
नै आवै छै
पृथ्वी केॅ बचाय लेॅ
हे कोशी माय
तोहरोॅ तेॅ जलराशि
आभियो होने खलखल करै छौं
मजकि
ई तेॅ कभियो नै
कहलकी हमरी मांय
कि तोहें पुराण काल में
कभियो लेलेॅ रहौ
अपन सन्तान केरोॅ प्राण
तेॅ अब कीए
कीए उग्र भै गेलोॅ छोॅ
हमरी दादी कहै रहै
कि तोहरे रूप जे छिकै
-उग्र तारा
ऊ कभियो नै रहै उग्र
कभियो नै मांगै रहै-बलि
तब आय कीए?