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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 6 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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हे कोशी माँ
तब तो तुम और भी उन्मादिनी थी
सृष्टि को क्षण में ही
निगल जाने वाली
लेकिन सृष्टि की रक्षिका भी
वह तुम्ही थी
तुम्हारे हृदय की ममता का
कोई पार नहीं-हे माता
वह कैसा कठिन समय था
जब शून्य ने
हवा और रोशनी
सब कुछ निगल लिया था
सिर्फ अंधकार नाचता था
और अंधकार के पैर से ही सटी
तुम्हारी खलखल करती हुई जलराशि
कोई नहीं
कहीं बचा था
बच सका था
तब उस समय
हे कोशी माँ
तुम्हारा मन करुणा से भींग गया था
और तुम्हारा वही छलछलाता मन
एक मछली बन कर
बचा ले गया था
वैवश्वत मनु को
उस उफनाते महाप्रलय के बीच
बच गए थे वैवश्वत मनु
पहुँच गये थे
हिमालय की गोद में।

हे कोशी माँ
आज तो वह तुम्हारा रूप भी नहीं
न तो तुम्हारे वह विस्तार
बस छाड़न-ही-छाड़न
दूर तक पसरा हुआ अनन्त
तब भी तुम्हारे मनुपुत्र उदास
भयभीत
आँखों में नाचता है
एक भयानक स्वप्न
महामृत्यु का
मन में न कोई विश्वास
क्या आयेगा कोई मीन
उनके प्राणों की रक्षा के लिए
हहरते हैं
वैवश्वत मनु के पुत्र सारे।

जीवन का दूर तक
कहीं किसी सुख का चिह्न नहीं
रात-दिन
दिन-रात
कोई चिड़िया
टेरती है-अपशकुन
जाने क्या होगा
दहलता है रेत का मन
हहरते हैं खर और पतार
कि कहीं फिर तो
नहीं घुस आई है
वही बाघिन
कहीं किसी नये विशु के
जन्म पर
लेकिन तब क्या होगा
रोने वाला भी तो नहीं होगा
न डकरेंगी गायें
गायों का झुण्ड
नब्बे लाख गायें
जिसके कारण ही, हे कोशी माता
तुम्हारा यह आँचल
कभी कहता था
गौगृह गोगरी
राजा विराट का राज्य
कोशी के किनारे-किनारे
यहाँ से लेकर वहाँ तक
मोरंग से मालदा तक
महा अंग जनपद का एक छोर
जहाँ कभी
शरण ली थी
पाण्डु के पुत्र पाण्डवों ने
बहू के साथ माता कुन्ती ने
तब तुमने ही, हे कोशी माँ
पूरा होने में मदद की थी
वनवास की उस कठिन अवधि को
आसान भी
लेकिन आज तो
तुम्हारे ही पांडव सब
शरण ले रहे हैं
कहीं दूर देशों में
वनवास की अवधि बिताते हैं
माता कुन्ती कहीं
पत्नी द्रोपदी कहीं
और अभिमन्यु कहीं
चक्रव्यूह में कैद
कैद में दम तोड़ते
न कृष्ण का कहीं कोई शांति-सन्देश
मन में
बस एक ही अपशकुन
रह-रह कर उभरता है
कि कहीं फिर
न जग जाए
तुम्हारी माटी पर फिर से
वही रण
जीवन-मरण का
कुरसेला
फिर कुरूक्षेत्र न बन जाए
एक नहीं
सौ नहीं
जाने कितने-कितने कीचक
पंक्तिबद्ध हो गये हैं
कौरवों के पक्ष में
कृष्ण के खिलाफ
जाने क्या होगा
इस बार के महाभारत में
अगर महाभारत छिड़ ही गया।