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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 7 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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कभी
इसी अंग देश में
हे कोशी माँ
तुम्हारा ही पुत्र शैलेष
तुम्हारा आदेश पाकर
सोई पत्नी को छोड़
चुपचाप चला गया था
तुम्हारी साधना में
मोरंग देश
क्या-क्या नहीं
सहा था तुम्हारे बेटे ने
पर नहीं डिगा था
तुम्हारा बेटा शैलेष
टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी
सोच लिया था शैलेष्ज्ञ ने
अभागिन औरतों के
आँसू पोंछने में
अपना जीवन को बिता देने का
लौट कर
नहीं आया तुम्हारा वह बेटा
अपनी पत्नी के पास
अपनी माँ
अपनी बहन
और भाभी के
आँसू पोंछने के लिए
हे कोशी माँ
तुम्हारी ये आँखें
जो छलछलाती रहती हैं
मैं जानता हूँ
वह किसलिए-किसलिए।
भूख
गरीबी
बेकारी-बेरोजगारी
की पचिया धामिन
बहुरा गोढ़िन
एक नहीं
पंक्तिबद्ध हो
खड़ी हो गई हैं
एक नहीं
सौनहीं
तुम्हारे हजारो-हजार
शैलेषों को
गरबी दयालों को
अपना आहार बनाने के लिए
वे अस्त्र सब
जो छिपा रक्खे थे पांडवों ने
अपने-अपने
तुम्हारी आँचल में
वे सारे-के-सारे ढेर सारे अस्त्र
हाथ लग गये हैं
आज के कीचकों के
और उन्मत्त हो नाच रहे हैं
चौक-चौराहे
रास्ते-कुरास्ते पर
कृष्ण का रूप धारण कर
कह रहे हैं
मैं ही हूँ कृष्ण
मुझे ही पूजो
मैं ही तो कल भी था
मैं ही कल रहूँगा।

मालूम हुआ है, हे माता
कि सबको
अपनी ही तरह बनाने के लिए
एक कीचक ने बनाया है
एक पोखर
डाल दिया है
उसके पानी में जहर
अब जो कोई भी
आता है वहाँ-प्यासा-बेहाल
और पीता है उसका पानी
वह उसी कीचक-सा
हठात ही हो जाता है
और देने लगता है
उसी क्षण से
कृष्ण को गालियाँ
अपने को ही कृष्ण सिद्ध करता हुआ
सुनने में आया है
वे सारे कीचक
अब एक साथ मिल कर
तीन-तीन कोस पर
ऐसे ही पोखर बनायेंगे
तब क्या होगा
हे माता कोशी
अंग देश की मोक्षदा
तब कहो क्या होगा
भूख और प्यास से तो
मर ही रहे हैं लोग
तुम्हारी सन्तानें
तुम तो जानती ही हो माँ
कि भूख क्या नहीं कराती है
फिर यह किसे नहीं मालूम
कीचकों को भी मालूम है
इसीलिए तो उन्होंने
तुम्हारे सारे सरोवरों
कुओं और धारों पर
पहरा लगवा दिया है
ताकि कोई भी
तुम्हारे घाटों पर
न जा सके
न पी सके
तुम्हारे मोक्षदा जल को
प्यासा आखिर करे भी तो क्या
जहरीला पानी ही पीता है
जैसा नहीं जीना चाहिए
वैसा जीता है
फिर भी कहाँ मिटती है
इस सब से भी भूख और प्यास
सिर्फ जहर लहू में उतरता रहता है
हे कोशी माँ
अगर तुम्हारी रेत का यह समन्दर और जलराशि
पेट में जा कर जम जाता
तो तुम्हारे ये लाखों लाख
गरीब बेटे
तुम्हारे जल को
फलाहार की तरह
कण्ठों से नीचे
उतार लेते
परदेश-परदेश
धूल फाँकने से तो
कहीं अच्छा होता
पारे-से चिकने तुम्हारे बालू और पानी को
पेट में जमा लेते
लेकिन यह सब
सिर्फ कहने के लिए ही है
भूख तो भूख है
दुनिया का सबसे बड़ा शत्रु है
ऐसे ही नहीं
तुम्हारे लाखों लाख पुत्र
पाँच-पाँच मन के
कुदाल हाथों में लिए
अभी भी वैसे ही
जैसे कभी मजदूरी करते रहे
तुम्हारे वे दोनों पुत्र
दीना और भदरी
दिन-रात
रात-दिन
और अभी भी वैसा ही
अत्याचार जारी है
जमीन्दार कनक सिंह
अपहरण करता है
करवाता है
दीना और भदरी जैसे लोेगों का
बलपूर्वक खिंचवा लेता है
और बनवा देता है
आघिन का आहार
बाघिन लहू पी-पी कर
गुर्राती है
दूर देश से आई
एकदम खतरनाक
बन गई है बाघिन
एक समय इसीने
कारू भगत को भी
निगल लिया था
पूरा-का-पूरा जिन्दा
उतने बड़े भक्त-
भक्त-महादेव का
कहते हैं-स्वयं भगवान थे
कारू भगत
उन्हें भी नहीं छोड़ा था
इस बाघिन ने
बाघिन फर्क नहीं करती है
साधू और शैतान में
भक्त और भूत में
उसके लिए तो सब आहार हैं