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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 8 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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कनक सिंह खुश है
सुनने में आया है
बाघिन जंगल से निकल कर
कनक सिंह के
घर में रहने लगी है
कैसा यह भाग्य जगा है
बाघिन
किसी के प्राण ले सकती है
दिन-दहाड़े किसी भी क्षण
उसे यह सुविधा मिल गई है।

हे माता कोशी
लोग सब
तुम्हारी अबोध सन्तान
सुबह से शाम तक
गाते हैं मनाउन
लीन रहते हैं भक्ति में
तब भी
नहीं पिघलता है
तुम्हारा मन
उड़ती रहती है
घुमना और गुग्गुल की सुगन्ध
बजते रहते हैं
मृदंग और मानर
कहीं ढोल और ढाक
काँपते रहते हैं
उन्ही सबसे
हे माता कोशी-
यहाँ से लेकर वहाँ तक के
तुम्हारे घाट और किनारे
काँपती रहती हैं कसार घासें

और बड़े-बड़े
बूढ़े पीपल की डालें
लेकिन नहीं उतरता है
कोई देवता या भगवान
भगैत की धुन पर
मेरा यह अंगुत्तराप
मेरा यह कोशी-भूखंड
अछूता ही रह जाता है
अब बार-बार
तुम्हरी ममता से
देवता के वरदान से
कृष्ण के इस आश्वासन से
कि जब-जब
धरती पर अधर्म फैलता है
मैं बार-बर
अधर्म के नाश के लिए
और धर्म की रक्षा के लिए
अवतार लेता हूँ
सारे कथन
चाहे वह देवता के हों
या किसी धर्मग्रन्थ के
झूठ लगते हैं।

हे माता कोशी
तुम्हारी इस चाँदी और
ताम्बा जैसी माटी पर
जब भूख से
मरते हुओं को मैं देखता हूँ
तुम्हारी हजारों-हजार सन्तानों को
उस समय
यह बात भी झूठी लगती है

कि आत्मा अनश्वर है
इसे न अग्नि जला सकती है
न पानी गला सकता
न हवा ही उड़ा सकती है
हो सकता है
ये सारी बातें सच भी हों
लेकिन कि यह नहीं हो सकता
कि भूख
इसे नहीं मार सकती
भूख आत्मा तक को मार देती है
घायल कर देती है
पूरी तरह से लहूलुहान
मुझे यही विश्वास होने लगता है
जब-जब भी
मैं देखता हूँ
अपनी ही माटी पर
भूख से तड़पते
लहूलुहान होते
सूख कर कंकाल बनते
अपने भाइयों को
स समय लगता है
सब कुछ झूठ है
देववाणी झूठ
देवता झूठ
देवदूत झूठ
परचा झूठ
लिखन्त झूठ
पढ़न्त झूठ
सच तो बस एक ही बात
कि पेट के कुरूक्षेत्र में
हे कोशी माँ