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कोसी रोॅ कहर / प्रदीप प्रभात
Kavita Kosh से
कोसी निंगली गेलै गॉव-शहर
फाँकी रहलोॅ छै लोयेॅ खाली रेत।
हँसी-खुशी सब्भेॅ छिनैलै
पड़लै जबेॅ दुर्दिन रोॅ बेंत।
खेत खरियान आरो हरियैलोॅ खेत
घोॅर-ऐंगन सब बालू रोॅ ढेर।
कोसी किनारा रोॅ जिंनगी जीत कहोॅ या हार
धन दौलत सब्भेॅ भसलै, भसी गेलै व्यपार।
कोसी माय लै लेलकै पशु धन आरो इन्सान
सत्ती साल चढ़ैलेॅ राखै कोसी धनुषोॅ पर वाण।
‘कोसी बहै अंग’ किताबोॅ में प्रकाशित सेॅ साभार