भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोस-कोस पर रोटी-पानी / नईम
Kavita Kosh से
कोस-कोस पर रोटी-ानी,
बारह पर बदले है बानी;
अपने किए-धरे पर उठकर
हम ही फेर रहे हैं पानी।
अपना पता पूछते फिरते हम गै़रों से,
अपने ही घर में घुसते लेकिन चारों-से;
हे प्रभु! हैं वो धन्य हमें जो-
बिना फीस के सीख दे रहे।
किंतु ग्रहण करने में मेरी-
मर लेती है दादी-नानी।
गले बँधे ताबीज, जेब में है चालीसा,
हुए खु़दा आसेव करें क्या ईसा भूसा?
धरती को करके अनदेखा,
आसमान पर आँख लगाये,
लोकवेद से परे मछिन्दर
हो बैठे तांत्रिक विज्ञानी।
अपनी सौंह समय अपना, गर जाग गए हम,
डूब मरें यदि पीठ दिखाकर भाग गए हम;
ऐसी कोई शक्ति नहीं जो-
अपने बूते से बाहर हो।
हम ही अपने पीर प्यंबर-
हम ही अपने अवढरधानी।
अपने किए-धरे पर उठकर
हम ही फेर रहे हैं पानी।