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कोहसार-ए-तग़ाफुल को सदा काट रही है / जमुना प्रसाद 'राही'
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कोहसार-ए-तग़ाफुल को सदा काट रही है
हैराँ हूँ के पत्थर को हवा काट रही है
पेशानी-ए-साहिल पे कोई नाम न उभरे
हर मौज समंदर का लिखा काट रही है
अल्फ़ाज की धरती पे हूँ मफहूम-गज़ीदा
अब जिस्म पे कागज़ की क़बा काट रही है
हर रूह पस-ए-पर्दा-ऐ-तरतीब-ए-अनासिर
ना-करदा गुनाहों की सज़ा काट रही है
फ़नकार का ख़ूँ दामन-ए-तख़लीक पे गोया
तस्वीर मुसव्विर का गला काट रही है
महजूब हैं मग़रूर दरख़्तों की क़तारें
हर शाख़ को शमशीर-ए-अना काट रही है