Last modified on 22 जनवरी 2021, at 00:16

कोॅन कमाय / अनिल कुमार झा

ग्रीष्म छेकै तपना नियति के स्वीकारोॅ सब मोॅन लगाय,
बिना ताप के सहने बोलोॅ होना की छै कोॅन कमाय।

धरती के प्यासोॅ के समझो
ओकरो तड़पन, तैयारी
फाटी फाटी व्याकुल होतै
जागते नेह महाभारी
घास-फूस ते बढ़लो अरि छेकिये हम्में जोन, जराय,
बिना ताप के सहने बोलो होना की छै कोॅन कमाय।

दुत्कारी के ऐत्ते हमरा आखिर
तोरा की मिलथौं,
एक रंग खोजें छोॅ कैन्हेॅ
फूल कहाँ सब दिन खिलथौं
परिवर्त्तन के अस्त्र शस्त्र हम्मी पीठिका पूब पराय,
बिना ताप के सहने बोलो होना की छै कोॅन कमाय।
यहा ठीक होथौं की हमरो
साथैं साथ चलोॅ चलोॅ,
सभ्भै जे छोड़ै छै कहने
कहियो न हमरो हुए भलो
तड़प जलन तृष्णा सहते ही देबें सब टा काम कराय,
बिना ताप के सहने बोलो होना की छै कोॅन कमाय।