भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कौआ / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
कौआ रोजे जावे छै
सखरी-मखरी खावै छै।
कहियो बेठै छप्पर पर
कहियो नैका टप्पर पर
कहियो उतरी अंगना में
सुख-सन्देश सुनावै छै।
ठोचकोॅ मारै ढेरी में
भरलोॅ सूप-चँगेरी में
मौका मिलथैं मुनिया के
बिस्कुट तुरत उड़ावै छै।
कौआ बड़ा सयानोॅ छै
एक आँख के कानोॅ छै
साँझ-सबेरे आवी केॅ
काकी कॅे फुसलावै छै।
जखनी कौआ ‘काँव’ करै
काकी बाहर पाँव धरै
बौआ केॅ दुलरावै लेॅ
शायद काका आवै छै।