कौए / सरोजिनी साहू
तुम क्यों बुला रहे हो? मैं तो छोड़ चुकी हूँ कबसे 
चूल्हे-चौके का संसार, नहीं देख रहे हो,
अब मेरी मुठ्ठी में है मेरे पायल
मुझे और क्या अच्छा लग रहा है 
जाडों की सुबह में नहाना
काजल सिंदूर लगाना? 
मुझे घर-बार से क्या?
मुझे क्या लेना संन्यास-फन्यास? 
जो जब ढूंढे, मैं उसकी बन जाऊं,यही तो आस है.
वही तो मैं बता रही थी, 
कि गिद्धों के  पीछे-पीछे कौए चले गए,
और सुबह दिखाई नहीं देते छत पर
छह महीने पहले,
सोनमणि कि दुकान के सामने, 
बासी पकौडे खा रहा था,
कि अगर मैं उसकी भाषा जानती तो जरुर पूछ लेती 
कहाँ है उसका गाँव, उसकी जमीन, रिश्ते-नाते
कब कैसे खोए,कहाँ सब गए? 
मणि साहू का बेटा रेवती नंदन 
उस दिन खूब रोया था
मैंने कितना ढूंडा गलियों में और हारकर बच्चों कि किताबों से 
दिखलाया उसे कौआ तो हंस-हंसकर पेट फूला.
इत्ते से जीव को इतनी प्यास लगी 
कि चिलचिलाती धुप में कितनी नौटंकी की.
जंग लगे पिंजरे थे घर में,
अगर कौआ अघोरी न होता,
उसे बोलती रह जा, खाली पडा है
पर अधखाए पकौडे छोड़ वह उड़ गया 
जा बैठा मणिआ बाबा के आश्रम के खंभे पर,
एक पैर पर बैठे-बैठे ताकता रहा.
इतना गुरुर मत कर,
तेरा क्या लेना-देना संन्यास-फन्यास से? 
एक-आध कहीं अटक गए हो,
द्दश्कर्म तक मेरा भाई कितना परेशान  रहा
पिंड पडा रहा अस्थि के पास.
(अनुवाद: जगदीश महान्ति)
	
	