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कौड़ी एक उधार की / उमाकांत मालवीय
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सात समंदर पार की,
कौड़ी एक उधार की।
ले आया नटखट बंदर,
छोड़ दिया भालू के घर।
धन्ना सेठ बना भालू,
अकडूँ खाँ औ’ झगड़ालू।
जिसे नसीब न ठेला था
उसको ज़िद है कार की।
सात समंदर पार की,
कौड़ी एक उधार की।