भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कौन उसे रो लेता था / जयंत परमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन उसे रो लेता था
मेरा दुख तो तन्हा था

शाम ढली तो तन्हा पेड़
किसको सदाएँ देता था

हाथ हिलाती थी खिड़की
शाम का आख़िरी तारा था

काँपते बर्गों गुल की तरह
हाल हमारे दिल का था

काग़ज़ पर खिड़की खींची
जिसमें तेरा चेहरा था।