भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कौन कहता है कि मर जाता हूँ मैं / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी
Kavita Kosh से
कौन कहता है कि मर जाता हूँ मैं
धूप ढलती है तो घर जाता हूँ मैं
अपनी ख़िलवत<ref>अकेलेपन</ref> में निखर जाता हूँ मैं
हाल वो पूछें तो मर जाता हूँ मैं
रंजो-ग़म, क़हरो-क़यामत,शोरो-शर
साथ होते हैं जिधर जाता हूँ मैं
इनसे मिलना है मेरा ज़ौक़े-सलीम
वो मिलें तो ख़ुद सँवर जाता हूँ मैं
मैं कली की ज़ात<ref>अस्तित्व</ref> में महफ़ूज़<ref>सुरक्षित</ref> हूँ
फूल बनकर तो बिखर जाता हूँ मैं
कौन हर खिड़की से ताके है मुझे
किसकी ख़ातिर दर-ब-दर जाता हूँ मैं
जानता हूँ आस्ताँ<ref>दहलीज़</ref> तेरा है दूर
चल नहीं सकता मगर जाता हूँ मैं
‘चाँद’ का ही अक्स<ref>प्रतिबिम्ब</ref> आईने <ref>दर्पण</ref>में है
तोड़ कर इसको किधर जाता हूँ मैं
शब्दार्थ
<references/>