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कौन गा रहा है यह गीत / मोहन कुमार डहेरिया

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बिफ़राई ततैया-सा झूम गए हैं मेरे शरीर से इसके बोल
चीथ रहा पंजों में दबोचकर बनैले जानवर-सा मेरी आत्मा को इसका संगीत

कौन गा रहा है यह गीत

कितने स्लो-मोशन में बज रहा यह गीत
कौन खोल रहा इतने इत्मीनान से अपने घाव के टाँकें
बचा नहीं जैसे उसके पास कोई और काम
कौन कर रहा सुरों के माध्यम से अपनी नसीब से
इतनी मार्मिक जिरह
कौन उतरा है इतनी प्राचीन बाबड़ी में
बीते हुए समय के सड़ चुके जल से बुझाने अपनी प्यास
कौन है आसमान में जर्जर प्रकाश वाले तारे-सा
देखता पृथ्वी पर पड़ी अपनी निस्पन्द देह को इतनी विरक्ति से

कौन गा रहा है यह गीत

सुना है जबसे इसे
हो रही मुझे गहरी बैचेनी
माथे पर छलछला रहा पसीना और तेज़ हो गई साँसें
दौड़ रहा शरीर का सारा ख़ून हृदय की तरफ़
विकट संकट में हो जैसे वह
छटपटा रही मेरे जीवन के नेपथ्य में सीने को पकड़े कोई परछाईं
एक रूलाई की गिरफ़्त में आने ही वाला है मेरा कण्ठ
हो रही विचित्र अनुभूतियाँ
कभी लगता रहता हूँ जिस घर में
उजड़ा हुआ मक़बरा है दरअसल वह प्रेम के किसी शायर का
कभी आतंक से खड़े हो रहे हैं शरीर के सारे रोएँ
देख रहा मानों मुझे अपनी पगड़ी की आँख से
खाप पंचायत का कोई मुखिया

कोई गा रहा यह है गीत

कौन है जो अपनी ही आवाज़ को अपने सिर की तरफ़ ताने है पिस्तौल-सा
कौन जा रहा है पूरी दुनिया की तरफ़ किए अपनी चट्टानी पीठ
इतने निस्तेज क़दमों से
गल गए है किसके हौसले इस क़दर जीवन के बर्फ़ीले दर्रो को पार करते-करते
कौन दुकानदार है यह ताउम्र दुनिया के मेले में दुकान लगाने के बावजूद
हुई नहीं बोहनी तक जिसकी
अरे कौन है पटक रहा प्यानो के बटनों पर पागलों की तरह हाथ
पटका करता था जैसे जर्मनी का अमर संगीतकार बीथोवेन
कुचल दी थी जब ईश्वर ने अपने पैरों तले उसकी श्रवण-शक्ति

जब से सुना है यह गीत
हो रही विचित्र अनुभूतियाँ
कभी लगता है
घोड़ा हूँ मैं सजा-धजा ग्लानि में डूबा
अपनी राजकुमारी को युद्धभूमि में खो देने के बाद लौटा जो थके क़दमों से
करता नगर के भद्र-जनों के प्रश्नों का सामना
कभी नाचता महसूस होता अपने सीने पर किसी न्यायप्रिय शहंशाह का अट्टहास
निकला होता है जो उसके कण्ठ से जीते जी एक युवती को
दीवारों के बीच चुनवा देने के बाद

कौन गा रहा है यह गीत