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कौन गुमान करो जिन्दगी का? / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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कौन गुमान करो जिन्दगी का?
जो कुछ है कुल मान उन्हीं का।
बाँधे हुए घर-बार तुम्हारे,
माथे है नील का टीका,
दाग़-दाग़ कुल अंग स्याह हैं
रंग रहा है फीका--
तुम्हारा कोई न जी का।
एक भरोसा, एक सहारा,
वारा-न्यारा बन्दगी का,
ज्ञान गठा कब, मान हुआ कब,
ध्यान गया जब पी का,
बना कब आन किसीका?