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कौन ज़िंदा है? / रेशमा हिंगोरानी

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था चाहा जब भी मैंने,
हाल-ए-दिल सुनाऊँ तुझे,
थे मैंने जब भी बढाए,
तेरी जानिब ये क़दम,
तू मुझसे दूर,
अकेला निकल गया था कहीं,

औ’ खुद्कलामी का इल्ज़ाम लगाता मुझ पर,
ये ज़माना,
कि जैसे मैं भी थी,
सौदाई कोई!

वो कल की बात थी,
और आज ये आलम है यहाँ,
न कोई राज़ है,
न बात ही कोई बाक़ी!
न ही तलाश,
किसी ग़मगुसार की मुझको…

है मेरे हरसू आज भी,
वो शोरिश-ए-हस्ती,
टिका हुआ है वहीं का वहीं,
गम-ए-दौराँ,

और इन सबसे बेखबर ,
मैं अब भी ज़िंदा हूँ...
और इन सबसे बेख़बर
ही,
अब मैं ज़िंदा हूँ?