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कौन जाग रहा है / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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पता नहीं, कब मुँहअँधेरे,
इस शहर ने
अपनी लम्बी-चौड़ी मुट्ठी खोली
और बिखरे दिया था
हमें
दूर....दूर
इसके बाद उतरी शाम ने
हम सबको अपनी उँगलियों से बीन-बीन कर-
एक जगह समेट दिया और चली गयी।

बाहर,
तमाम रोशनी को सड़क पर खड़ा कर
दरवाजे़ भिड़नेवाली आवाज़ के साथ
एक-एक घर अँधेरे में पोत देगा, इसी घड़ी
यह शहर।

अभी, इसी क्षण
खून की एक-एक बूँद में
सुन पड़ेगी,
महाकाल की घनगरज हाँक:
कौन जाग रहा है?
प्यार की देह से धूल झाड़ते-झाड़ते ऊँचे स्वर में
गर्व से कहेंगे:
‘हम!’