भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कौन थकान हरे / गिरिजाकुमार माथुर
Kavita Kosh से
कौन थकान हरे जीवन की ।
बीत गया संगीत प्यार का,
रूठ गई कविता भी मन की ।
वंशी में अब नींद भरी है,
स्वर पर पीत साँझ उतरी है
बुझती जाती गूँज आखरी —
इस उदास वन-पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,
अब सपनों में शेष रह गईं,
सुधियाँ उस चंदन के वन की ।
रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्वर सकुचाए,
म्लान दिया बत्ती की बेला —
थके प्रवासी की आँखों में
आँसू आ-आ कर कुम्हलाए,
कहीं बहुत ही दूर उनींदी
झाँझ बज रही है पूजन की
कौन थकान हरे जीवन की ।