कौन यहाँ है अपना / श्वेता राय
कैसे मन का हाल कहूँ जब, टूट गया है सपना।
अब लगता है जग में मुझको, कौन यहाँ है अपना॥
खेल मेल ये जग के सारे, केवल हैं इक माया।
नीर धार भी दे जाती है, पत्थर को इक काया॥
हँसती रहती दूर्वा हरदम, अलग पात तरु होते।
बिछड़ बिछड़ इक दूजे से सब, कितना कितना रोते॥
छूट गये सब संगी साथी, पीर हृदय है जपना।
अब लगता है जग में मुझको, कौन यहाँ है अपना॥
बांच कहाँ कब कोई पाये, नियती के ये लेखे।
जो होना है होता ही है, मूक हृदय बस देखे॥
सह जाता है घाव सभी मन, हठ करना कब जाने।
जीते जीते आ जाता है, मरना ये भी माने ॥
भूल गया तन शीतल छाया, याद रहा बस तपना।
अब लगता है जग में मुझको, कौन यहाँ है अपना॥
पाकर तुमको रोई थी मैं, खो कर तुमको रोई।
लगता है बरसों से मेरी, आँखें कब हैं सोई॥
पथ को देखूं आस करुँ मैं, पर सच को पहचानू।
जाकर आता है कब कोई,बातें ये मैं जानू॥
भूल गई हूँ नीत प्रीत मैं, सीख रही हूँ खपना।
अब लगता है जग में मुझको, कौन यहाँ है अपना॥
कैसे मन का हाल कहूँ जब, टूट गया है सपना।
अब लगता है जग में मुझको, कौन यहाँ है अपना।