कौन सा सच खोजते हो / प्रताप नारायण सिंह
जन्म की पहली किरण से
देह के अवसान तक
खींचता है चल रहा
वह सृष्टि का रथ अनवरत
हर्ष में हो उल्लसित
और वेदना में हो व्यथित
डोर थामे साँस की
चलता मनुज का काफिला
यह सत नही तो क्या भला ?
मोहती मन प्राण को
शिशु की मधुर किलकारियाँ
राग भरतीं सघन, मन में
प्रिय नयन की बोलियाँ
रागिनी को साँस में भर ,
हर्ष से उन्मत्त हो
तीर है चंचल सरित के
गीत गाता बाँवरा
यह शिव नही तो क्या भला ?
पूर्व नभ में प्रस्फुटित होती
मनोरम अरुणिमा
अमराइओं में पत्र से छनती
मही पर चन्द्रिका
पुष्प पल्लव पुष्करिणीयाँ
विविध रंगी बहु लता
मेदिनी के वक्ष पर
ये लहलहाती हरीतिमा
सुन्दर नहीं तो क्या भला ?
कौन सा सत
कौन सा शिव
और सुन्दर कौन सा
खोजते हो मध्य- वन
गिरि कंदराओं ,गढ़ शिला
क्यों अधिक निष्ठा तुम्हारी
मृत्यु में, निर्वाण में
हो नहीं जीवन जगत में
और माया, तो कहो
अस्तित्व उनका क्या भला ?
जनमता मरता रहा है
जीव सदियों से यहाँ
किंतु शाश्वत सत्य सा
जीवन सतत चलता रहा
अवतरित होते रहे हैं
देव जीवन के लिए
कोइ सिखलाती नहीं गीता
पलायन, विमुखता
बस कर्म ही सबसे बड़ा।