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कौन से दिन तेरी याद ऐ बुत-ए-सफ़्फ़ाक नहीं / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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कौन से दिन तेरी याद ऐ बुत-ए-सफ़्फ़ाक नहीं
कौन सी शब है कि ख़जंर से जिगर चाक नहीं

लुत़्फ़-ए-क़ातिल में तअम्मुल नहीं पर क्या कीजे
सर-ए-शोरीदा मेरा क़ाबिल-ए-फ़ितराक नहीं

तुझ पर ऐ दिल-बर-ए-आलम जो हर इक मरता है
इस लिए मरने से मेरे कोई ग़म-नाक नहीं

दिल हुआ पाक तो फिर कौन नज़र करता है
और दिल पाक नहीं है तो नज़र पाक नहीं

इल्म और जहल में कुछ फ़र्क़ न हो क्या मानी
हम भी बे-बाक हैं पर गै़र से बे-बाक नहीं

कै़स को फ़ज़्ल-ए-तक़ददुम है वगरना याँ क्या
सर-ए-शोरीदा नहीं या जिगर-ए-चाक नहीं

मा-सिवा अल्लाह न रहे ‘शेफ़्ता’ हरगिज़ दिल में
ख़ुसरवी काख़ सज़ा-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक नहीं