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कौन हूँ मैं / अहिल्या मिश्र

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बार बार यह प्रश्न
मेरा मन बाँच रहा है
मैं कौन हूँ, हूँ मैं कौन?
इसी जलन की केवल
मन में आँच रही है।

क्या मैं नर संहारक हूँ
निज स्वार्थ के लिए करता जो
जन-श्रम-कण का भक्षण
लगाता ढेर भौतिक सुखों का
समझता केवल स्व को समर्थ जन?

नहीं नहीं यह मेरा मैं हो सकता नहीं
अनगिनत लाश पर मैं पग धरता नहीं।
तो क्या मैं अशांति दूत हूँ?
निज प्रसिद्धि व पद-लालसा में
जो करता असमर्थों का शोषण
निश्चल मानव को वादों से बहला
उनके विश्वासों का करता भोजन।

नहीं! नहीं! मैं सफेद-पोश नहीं
विश्वास में मटमैला पन भरता नहीं
फिर क्या मैं सपनों का सौदागर हूँ?
बेच औरों के सपने अपनी जेबें भरता हूँ
धर्म-ईमान के नाम पर सिर काटने,
भाई के ढाँचे पर अपना घर बनाने
का विष वृक्ष रोप नहीं सकता।

नहीं नहीं विषैले सपनों की नींव मेरी नहीं
संकीर्णता की टंगीछूद्र सलीब मेरी नहीं।
शेष बचा पशुता का आरोप,
जग में मात्र मैं का एक प्रतिरूप।
क्या मानवता का मार्ग नहीं जानती?
फिर उस पशुता का असली स्वरूप
क्यों कर मैं नहीं पहचानती?

आँख मूँद कर कैसे चलूँ इस पथ पर
जो न ले जाते प्रभु तेरे दर पर
किंतु अब भी प्रश अधूरा ही है
मन मंथन कर भी सुधा श्रोत न पा सकी मैं
मूल्यांकन के अधूरेपन की
व्यथा के लिए छंद बंद करती हूँ मैं।