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कौन है तुझ से दा-चार नहीं / 'शोला' अलीगढ़ी
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कौन है तुझ से दो-चार नहीं
एक मैं ही ये गुनाह-गार नहीं
हाए फ़स्ल-ए-बहार ओ जोश-ए-जुनूँ
याँ गिरेबाँ में एक तार नहीं
सैंकड़ों दर्द इक नहीं दरमाँ
लाख ग़म कोई ग़म-गुसार नहीं
वस्ल क्या जब न हिज्र के हों मज़े
वादा क्या जिस का इंतिज़ार नहीं
हात आ जाए आप का दामन
हश्र का भी कुछ इंतिज़ार नहीं
क्या सबात दो-रोज़ा पर मर के
ज़िंदगी का कुछ ऐतबार नहीं
उस के कुश्तों का क्या पता ‘शोला’
कहीं तुर्बत नहीं मज़ार नहीं