कौन हो तुम / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
कौन हो तुम?
मात्र कोरी वासना! या देह के उस पार का संसार भी!
तुम सरोवर में प्रणय के, देह सौरभ का लिये जलजात कोई?
या किसी ध्यानस्थ योगी के अधर पर तैरती वैदिक ऋचाएँ।
तुम प्रथाओं से विवश होकर, किसी पथ पर पड़ी नवजात कोई?
या कि तुमसे ही जगत में जन्म लेती आ रही हैं अघ प्रथाएँ।
कौन हो तुम!
मात्र अतिशय वेदना! या पीर के उस पार का उद्धार भी!
तुम विमर्शों की धरा पर, टोकरी भर बात की सम्भावना हो?
या तुम्हारा मौन होना, है तुम्हारे शिष्ट होने की निशानी।
तुम मनुज की चेतना में पारिजाती पुष्प की परिकल्पना हो?
या तुम्हारा महक उठना, है तुम्हारे धृष्ट होने की कहानी।
कौन हो तुम?
मात्र कोई सर्जना! या सृष्टि का सम्यक सृजन-आधार भी!
तुम नई कविता! तटों के बन्धनों से मुक्त, बहती काव्यधारा?
या नवल चिंतन! जहाँ निर्वस्त्र होना सोच की स्वाधीनता है।
तुम विचारों की नदी में, रूढ़ियों से तेज बहती एक धारा?
या अभागा पृष्ठ! जिसपर साम्य का उल्लेख करना हीनता है।
कौन हो तुम?
चिर-निरादृत याचना! या आत्मगौरव का मुखर प्रतिकार भी!