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कौवे और हिरन की दोस्ती / नज़ीर अकबराबादी

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एक दस्त<ref>जंगल</ref> में सुना है एक खू़ब था हिरन।
बच्चा ही था अभी न हुआ था बड़ा हिरन॥
फिरता था चौकड़ी का दिखाता मज़ा हिरन।
देखा जो एक कौवे ने वह खु़शनुमा<ref>सुन्दर</ref> हिरन॥
दिल को निहायत<ref>अत्यधिक</ref> उसके वह अच्छा लगा हिरन॥1॥

दो बातें करके कौवे ने उसका लगा लिया।
दम में हिरन भी कौवे की उल्फ़त में आ गया॥
कौवे हिरन में ठहरी जो गहरी मुहब्बत आ।
कौवा जिधर जिधर को खु़शी होके जाता था॥
फिरता था उसके साथ लगा जा बजा हिरन॥2॥

एक गीदड़ उस हिरन के कने आके नाबकार।
बोला हज़ार जान से मैं तुम पै हूं निसार<ref>कुर्बान, न्यौछावर</ref>॥
मुझको भी अपना जान गुलाम और दोस्तदार<ref>मित्र</ref>।
और दिल में यह कि कीजे किसी तौर से शिकार॥
उसकी दग़ाओमक्र<ref>छल-कपट</ref> से वाक़िफ़ न था हिरन॥3॥

गीदड़ यह कहके मक्र से जिस दम गया उधर।
कौवा हिरन से कहने लगा करके शीरो शर॥
यह सख़्त मक्र बाज़ है कर इस से तू हिज़र<ref>उपेक्षा, भय</ref>।
एक दिन दग़ा से तुझको यह पकड़ेगा फ़ितनागर<ref>उपद्रवी</ref>॥
सुनकर यह बात कौवे की चुप हो रहा हिरन॥4॥

दिन दूसरे हिरन कने गीदड़ फिर आ गया।
कौवे को सोता देख यह बोला वह पुरदग़ा<ref>धोखे बाज़</ref>॥
मैं आज देख आया हूं, क्या खेत एक हरा।
तुम आओ उसको चरके तो हो शाद दिल मेरा॥
सुनते ही उसके साथ उछलता चला हिरन॥5॥

जिस खेत पर यह लेके गया उसको बदसगाल<ref>बुराई चाहने वाला</ref>।
वां पहले देख आया था वह एक हिरन का जाल॥
ले पहुंचा जब हिरन के तईं खेत पर शृगाल<ref>गीदड़</ref>।
जाते ही वां हिरन ने दिया मुंह को उसमें डाल॥
मुंह डालते ही जाल में वां फंस गया हिरन॥6॥

यहा फड़फड़ता आ गया कौवा भी नागहां।
गीदड़ को दे के गाली हिरन से कहा कि हां॥
तड़पै मत इसमें वर्ना तू होवे गा नातवां<ref>अशक्त</ref>।
कौवे की बात सुनते ही हिम्मत को बांध वां॥
जैसे गिरा पड़ा था वहीं फिर उठा हिरन॥7॥

गीदड़ लगा जब आने हिरन की तरफ़ झपट।
कौआ पुकारा मार तू सींग एक जो जावे हट॥
या एक खुरी तू ऐसी लगा पांव की झपट।
जावे जो उसके लगते ही गीदड़ का पेट फट॥
सुनकर खड़े हो सींग हिलाने लगा हिरन॥8॥

गीदड़ ने खू़ब कौए को दीं जल के गालियां।
सय्याद<ref>जाल बिछाने वाला, शिकारी, बहेलिया</ref> वां हुआ था किसी सिम्त को रवाँ॥
इसमें शिकारी आके हुआ दूर से अयां।
कौआ पुकारा लेट जा दम बंद करके हां॥
दम बंद करके अपना वहीं गिर पड़ा हिरन॥9॥

गीदड़ ने उसको देख के एक जाके झाड़ी ली।
सय्याद उस हिरन को पड़ा देा उस घड़ी॥
अफ़सोस करके दाम<ref>फंदा जाल</ref> की रस्सी खोल दी।
कौआ पुकारा भाग, अरे वक़्त है यही॥
सुनते ही वां से चौकड़ी भर कर उड़ा हिरन॥10॥

सय्याद ने जो देखा हिरन उठ चला झपाक।
जल्दी से दौड़ा पीछे हिरन के वह सीना चाक॥
सोटे को फंे़क मारा जो फ़र्ती से उसने ताक।
भागा हिरन लगा वों ही गीदड़ के आ खटाक॥
सर इसका फूटा और वह सलामत गया हिरन॥11॥

गीदड़ ने उस हिरन का जो चीता था वां बुरा।
पाई उसी से अपनी बदी की वहीं सजा॥
था यह तो नस्र मैंने इसे नज़्म में किया।
पहुंचा ‘नज़ीर’ जब वह खु़शी होके अपनी जा॥
कौवे के साथ फिर वह बहुत खु़श रहा हिरन॥12॥

शब्दार्थ
<references/>