भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कौशे! लागै छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौशे!
लागे छै-
सावन पगलाय गेलऽ छै।
तीन-तीन दिन लगातार-
बरसथैं रहै छै।
गरजथैं रहै छै।
गरजथैं रहै छै बादल।
बिजली छिटकै छै अलगे।
ठनको ठनकै छै।
सीरी रामचन्द्र जी-
जंगल में वनवास में रहथिन।
सीता जी केॅ
सूना पावी केॅ-
रावणें हरी केॅ
लंका लेॅ भागलॅ रहै।
वै समय भी
बरसा रितु रहै।
सीरीराम जी-
मरयादा पुरसोतम रहथिन-
मुदा लछमन सें कहलखिन-
‘‘घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रियाहीन डरपत मन भोरा।’’
हम्में तेॅ
मनुख छेकियै।
कोनीं खेतोॅ केॅ-
मुरै छीकियै?
जे हमरा, तोरा बिना डोॅर नै लागतै।
अनहरिया राती में-
जब बादल गरजेॅ लागै छै-
बिजली चमकेॅ लागै छै-
तबेॅ असकल्लोॅ-
करेजोॅ-
धक-धक करेू लागै छै।
खिड़की-
बन्द करी लै छीयै।
कैहिनें कि-
झींगुरें आरो बेंगें मिली केॅ-
रात आरो भयावह बनाय दै छै।
आँख बन-करी केॅ-
भगवान-भगवान भजेॅ लागै छीयै।
जलदी-
बिहानों नैं होय छै।
लिखेॅ लागै छीहौं-
तोरैह चिट्ठी।