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कौसानी में सुबह के चार चित्र-1 / सिद्धेश्वर सिंह

मुँह अँधेरे
कमरे से बाहर हूँ पंडाल में
यहीं, कल यहीं जारी था जलसा.

अभी तो -
सोया है मंच
माइक ख़ामोश
कुर्सियाँ बेतरतीब - बेमकसद...
तुम्हारी याद से गुनगुना गया है शरीर ।

उग रहा है
सूर्य के उगने का उजास
मंद पड़ता जा रहा है
बिजली के लट्टुओं का जादुई खेल
ठंड को क्यों दोष दूँ
भले - से लग रहे हैं
उसके नर्म , नुकीले , नन्हें तीर !