मुँह अँधेरे
कमरे से बाहर हूँ पंडाल में
यहीं, कल यहीं जारी था जलसा.
अभी तो -
सोया है मंच
माइक ख़ामोश
कुर्सियाँ बेतरतीब - बेमकसद...
तुम्हारी याद से गुनगुना गया है शरीर ।
उग रहा है
सूर्य के उगने का उजास
मंद पड़ता जा रहा है
बिजली के लट्टुओं का जादुई खेल
ठंड को क्यों दोष दूँ
भले - से लग रहे हैं
उसके नर्म , नुकीले , नन्हें तीर !