भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या-क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए
हम जागते रहे थे मगर बख्त सो गए

आँचल में फूल ले के कहाँ जा रही हूँ मैं
जो आने वाले लोग थे वो लोग तो गए

क्या जानिये उफ़क के उधर क्या तिलिस्म है
लौटे नहीं ज़मीन पे इक बार जो गए

आँखों में धीरे धीरे उतर के पुराने गम
पलकों पे नन्हें नन्हें सितारे पिरो गए

वो बचपने की नींद तो अब ख़्वाब हो गई
क्या उम्र थी कि रात हुई और सो गए