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क्या-क्या लोग गुज़र जाते हैं रँग-बिरँगी कारों में / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
क्या-क्या लोग गुज़र जाते हैं रँग-बिरँगी कारों में
दिल को थाम के रह जाते हैं दिल वाले बाज़ारों में
ये बे-दर्द ज़माना हम से तेरा दर्द न छीन सका
हमने दिल की बात कही है तीरों में तलवारों में
होंटों पर आहें क्यूँ होतीं आँखें निस-दिन क्यूँ रोतीं
कोई अगर अपना भी होता ऊँचे ओहदे-दारों में
सद्र-ए-महफ़िल दाद जिसे दे दाद उसी को मिलती है
हाए कहाँ हम आन फँसे हैं ज़ालिम दुनिया-दारों में
रहने को घर भी मिल जाता चाक-ए-जिगर भी सिल जाता
'जालिब' तुम भी शेर सुनाते जा के अगर दरबारों में