क्या अजब दुनिया हमें दी‚ तूने ऐ परवरदिगार!
चोर के तो ठाठ हैं पर रो रहा ईमानदार
भूख भी वैसी की वैसी जुल्म भी हैं ज्यों के त्यों
आदमी पर ये गुलामी है अभी भी बरकरार
ख़ुद को पाने की सनक में ख़ुद को ज़ख्मी कर रहा
आइने से लड़ रहा है इक परिंदा बार-बार
वक्त के इस शार्पनर में ज़िंदगी छिलती रही
मैं बनाता ही रहा इस पैंसिल को नोकदार
अब अदब की दाल सादा कौन खाता है यहाँ
कुछ मसाले तेज़ कर या प्याज़–लहसुन से बघार
इस शहर से भागना भी चाहता है ये 'समीप’
और इसकी रौनकों के वास्ते भी बे–क़रार