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क्या अजब ये हो रहा है रामजी / प्रदीप कान्त
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क्या अजब ये हो रहा है रामजी
मोम अग्नि बो रहा है रामजी
पेट पर लिक्खी हुई तहरीर को
आँसुओं से धो रहा है रामजी
आप का कुछ खो गया जिस राह में
कुछ मेरा भी खो रहा है रामजी
आँगने में चाँद को देकर शरण
ये गगन क्यों रो रहा है रामजी
सुलगती रही करवटें रात भर
और रिश्ता सो रहा है रामजी