क्या अब भी देश में हो, वनलता सेन? / आलोक श्रीवास्तव-२
कोई वनलता सेन थी
किसी जीवनानंद दास की
देश की किसी वीथी में
उसका आना जाना था
किन्हीं हवाओं में उसके आँचल का
उड़ता कोई रंग था ।
कितना अमृत घुलता है
प्राणों में
कितने रंग
कितनी रेखाएं न जाने कहां से आकर
कोई और ही दुनिया रच देते हैं ।
भावुकता का संसार टूटता है
ज़िंदगी की सादगी होती है पराजित
शब्द गिरते हैं
हारती है भाषा
मिथक हो जाता है प्यार
सुनो !
सौदागरों की टापें
एक वीराना फैला है देश में
यहीं कहीं थी एक नदी
जिसकी महिमा गाते अब भी कविगण
कि लहरों पर सूर्यास्त के सारे दृश्य
गुंजान हवाओं का मंजर
कत़्ल किया गया
मुनाफ़े के बाज़ार में
एक पूरी सदी उदास
देखती है
नगर-नगर भटकते भूखे बदहाल
मिट्टी का टूट गया है चेहरा
दरारें ही दरारें हैं
क्या अब भी देश में हो वनलता सेन !