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क्या आज तुम्हारे आँगन में भी घन छाए / हरिवंशराय बच्चन

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क्या आज तुम्हारे आँगन में भी घन छाए?
पीला, गर्दीला पच्छिम का आकाश हुआ,
आया झोंका,
तूफ़ान जिधर जी करता है मुड़ पड़ते हैं,
किसने रोका?
पत्ते खरके, दरवाजा खड़का, दिल धड़का,
बादल आए,
क्या आज तुम्हारे आँगन में भी घन छाए?

बढ़ता आया अँधियाला चार दिशाओं से,
बिजली चमकी,
फिर-फिर गर्जन-तर्जन करके अंबर ने दी
भू को धमकी,
मैं कब डरता, पर इस झंझा की बेला में
मन घबराता,
क्या प्राण तुम्हारे भी ऐसे में अकुलाए?
क्या आज तुम्हारे आँगन में भी घन छाए?